Shekhawati University,Sikar

Sunday 14 August 2016

Sawan Sukla Ekadashi Pavitra Ekadashi

Sawan Sukla Ekadashi Pavitra Ekadashi

सावन महीने की सबसे पवित्र एकादशी, जानें क्या है इसका महत्व

Sawan Sukla Ekadashi Pavitra Ekadashi

सावन का महीना 10  अगस्त को समाप्त होने वाला है। इस माह में एक बड़ी ही पवित्र एकादशी  शुक्ल पक्ष में आती है। इस एकादशी का नाम पवित्रा है। अपने नाम के ही अनुसार यह मनुष्य को पवित्र करने वाली एकादशी है। यह एकदशी इस वर्ष 7 अगस्त को है।
इस एकादशी के विषय में मान्यता है कि, जो भी व्यक्ति श्रद्धा और नियम पूर्वक यह व्रत का रखता है उसके पूर्व जन्म के सारे पाप कट जाते हैं और संतान एवं धन-संपदा का सुख प्राप्त होता है।
जो व्यक्ति पवित्रा एकादशी का व्रत करता है उसके वाजपेय यज्ञ करने का फल प्राप्त होता है। इससे पूर्व जन्म के पाप के कारण जीवन में आने वाली बाधाओं से मुक्ति मिलती है और मनोवांछित फल प्राप्त होता है।

पवित्रा एकादशी को सावन की पुत्रदा एकादशी के नाम से भी जाना जाता है। इस संदर्भ में एक कथा है।

पवित्रा एकादशी की कथा

प्राचीन काल में एक नगर में राजा महिजीत राज करते थे। निःसंतान होने के कारण राजा बहुत दुःखी थे। मंत्रियों से राजा का दुःख देखा नहीं गया और वह लोमश ऋषि के पास गये। ऋषि से राजा के निःसंतान होने का कारण और उपाय पूछा।

महाज्ञानी लोमश ऋषि ने बताया कि पूर्व जन्म में राजा को एकादशी के दिन भूखा प्यासा रहना पड़ा। पानी की तलाश में एक सरोवर पर पहुंचे तो एक ब्यायी गाय वहां पानी पीने आ गई।

राजा ने गाय को भगा दिया और स्वयं पानी पीकर प्यास बुझाई। इससे अनजाने में एकादशी का व्रत हो गया और गाय के भगान के कारण राजा को निःसंतान रहना पड़ रहा है।

लोमश ऋषि ने मंत्रियों से कहा कि अगर आप लोग चाहते हैं कि राजा को पुत्र की प्राप्ति हो तो श्रावण शुक्ल एकादशी का व्रत रखें और द्वादशी के दिन अपना व्रत राजा को दान कर दें।

मंत्रियों ने ऋषि के बताए विधि के अनुसार व्रत किया और व्रत का दान कर दिया। इससे राजा को पुत्र की प्राप्ति हुई। इस कारण पवित्रा एकादशी को पुत्रदा एकादशी भी कहा जाता है।
शास्त्रों में बताया गया है कि पवित्रा एकादशी का व्रत करने वाले को प्रातः काल स्नान ध्यान करके भगवान श्री कृष्ण की पूजा करनी चाहिए। पूरे दिन व्रत रखकर संध्या के समय भगवान की पुनः पूजन करने के बाद फल ग्रहण कर सकते हैं।

रात्रि जागरण करके भगवान का भजन कीर्तन करें। अगले दिन यानी द्वादशी तिथि को ब्रह्मणों को भोजन करवाएं और दान-दक्षिणा सहित विदा करें।

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